कलीसिया के लिए परामर्श

127/320

सेवकों का सेवक

जब शिष्यों ने भोजन के कमरे में प्रवेश किया तो उनके हृदय में रोषपूर्ण भावनाएं भरी हुई थीं.यहूदा मसीह के बाईं ओर सट कर बैठा हुआ था और यूहन्ना उसके दाहिनी ओर.सबसे ऊंची जगह लेने को यहूदा तुला बैठा था. और वह जगह मसीह के ठीक बगल में ही समझा जाती थी, परन्तु यहूदा विश्वासघाती था. ककेप 167.2

मतभेद का एक और कारण उठ खड़ा हो गया.किसी भी भोज के समय यह रिवाज होता था कि सेवक मेहमानों का पैर धोया करता था और इस अवसर पर भी इस संस्कार की तैयारियाँ की गई थीं. पैर धोने के लिए घड़ा चिलमची और तौलिया सभी कुछ तैयार थे परन्तु सेवक नहीं था. अब शिष्यों का कर्तव्य था कि इस कार्य को पूरा करें. परन्तु प्रत्येक शिष्य ने अपनी मान हानि समझ कर सेवक का कार्य न करने की मन में ठान ली. उन्होंने बड़ी उदासीनता प्रगट की मानो उनको करने को कुछ था ही नहीं. अपनी खामोशी से उन्होंने नम्र होने से इनकारी दिखलाई. ककेप 167.3

शिष्यों ने एक दूसरे की सेवा करने का कोई कदम नहीं उठाया.कुछ समय तक यीशु प्रतीक्षा करते रहे कि देखें लोग क्या करते हैं, तब वह ईश्वरीय गुरु मेज से उठा.अपने अंगरखे को उतारकर जिससे चलने फिरने में रुकावट हो सकती थी,उसने तौलिये से अपनी कमर बांधी.बड़े आश्चर्यजनक रुचि से शिष्यगण देखते रहे और मौन होकर प्रतीक्षा करते रहे कि देखें कि आगे क्या होता है.’‘ तब पात्र में पानी डाल कर वह होकर प्रतीक्षा करते रहे कि देखें कि आगे क्या होता है. “तब पात्र में पानी डाल कर वह शिष्यों का पैर धोने लगा और जिस अंगोछे से उसकी कमर बंधी थी उससे पोंछने लगा.इस कार्य से शिष्यों की आँखे खुले गईं. उनका हृदय अत्यंत लज्जा और शर्म से भर गया.वे मौन डांट का अर्थ समझ गये और अपने को एक नये प्रकाश में पाया. ककेप 167.4

इस प्रकार से यीशु ने अपने शिष्यों के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया.उसका हृदय शिष्यों के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया.उसका हृदय शिष्यों की स्वार्थ भावना को देखकर दुःख से भर गया परन्तु उसने उनकी कठिनाइयों के सम्बंध में उनसे किसी प्रकार वादविवाद नहीं किया.प्रत्युत उसने ऐसा नमूना उनको दिया जिसे वे कभी नही भूल सकते.शिष्यों के लिए उसका प्रेम कभी छिन्न-भिन्न अथवा कम नहीं हो सकता था.वह जानता था कि पिता ने सारी वस्तुएं उसके हाथ में सौंप दी हैं और कि वह पिता की ओर से आया और पिता ही के पास जाने वाला था.अपने ईश्वरत्व का पूर्ण ज्ञान था परन्तु उसने अपना राजस्वी मुकुट और शाहीवस्त्र उतार कर सेवक का रुप धारण किया. उसके सांसारिक जीवन का अंतिम कार्य यह था कि सेवक की भांति कमर बांधकर उसने सेवक का काम किया. ककेप 167.5

मसीह अपने शिष्यों को यह समझाना चाहता था कि यद्यपि उसने उनके पैर धाये थे फिर भी उससे उसकी इज्जत में कोई अन्तर नहीं आ गया था. “तुम मुझे, हे गुरु और हे प्रभु पुकारते हो और तुम अच्छा कहते हो क्योंकि मैं वही हूँ.’’इतना श्रेष्ठ होते हुए उसने इस संस्कार को महत्व देकर अनुग्रह से आभूषित किया.यीशु के समान इतना महान कोई नहीं था फिर उसने ऐसे तुच्छ कार्य करने को अपने को झुका दिया.यीशु ने विनम्रता का ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया ताकि उसके शिष्य को वह किसी मनुष्य के ऊपर नहीं छोड़ना चाहता था.वह इसको इतना महत्वपूर्ण तथा गम्भीर समझता था कि उसने जो परमेश्वर के बराबर था स्वंय शिष्यों के लिए सेवक का कार्य किया.उस समय जब वे सर्वोच्च स्थान के लिए होड़ लगा रहे थे वह जिसके सामने हर एक घुटना झुकेगा जिसको सेवा करना महिमा के दूत अपना गौरव समझते हैं वह स्वयं उनके पैर धोने को झुक गया जो उसको प्रभु कहते थे.उसने विश्वासघात के भी पैर धोये. ककेप 168.1

शिष्यों के पैर धोने के बाद उसने कहा ‘’मैं ने तुम्हें नमूना दिखा दिया है कि जैसा मैं ने तुम्हारे साथ किया है, तुम भी वैसा ही किया करो.’’(यूहन्ना 13:15)इन शब्दों के द्वारा यीशु ने केवल अतिथि सत्कार के अभ्यास डालने की आज्ञा ही नहीं बल्कि इन शब्दों में मेहमानों के पैरों में लगी हुई यात्रा की धूल धोने से कहीं अधिक गंभीर भाव व्यक्त किया है.मसीह यहाँ पर एक धार्मिक संस्कार का संमारंभ कर रहा था.हमारे प्रभु के इस कार्य द्वारा यह लज्जित विधि एक पवित्र संस्कार बन गया.शिष्यों द्वारा इस को मनाया जाता था ताकि वे सदैव नम्रता और सेवा का यह पाठ याद रखें, ककेप 168.2