महान संघर्ष
मण्डली और दुनिया में एकता होती है
शैतान ने अपने साथियों से सलाह कर जो लाभ प्राप्त हुआ उसे बताया। यह तो मानी हुई बात थी कि कुछ डरपोक लोगों के सत्य का पालन करने से मृत्यु सहना होगा। इस डर से वे सत्य पालन करने से मुकर गये थे। पर डरपोकों ने भी सत्य को ग्रहण किया तो उनका डर भाग गया। जैसे उन्होंने अपने भाईयों की मृत्यु को देखा कि वे कितना दृढ़ और धीरजवन्त थे तो समझे कि ईश्वर और दूतों ने उन्हें मदद की जिस से वे दुःख सहते हुए भी बहुत निडर और साहसी बने। जब उन्हें अपने विश्वास के लिए प्राण देने पड़े तो उन्होंने बड़ा ही धीरज और साहस दिखाया। इसे देख कर सताने वाले भी सहम गए। शैतान और चेलों ने निर्णय किया कि लोगों को नाश करने का अन्तिम समय में और भी उत्तम तरीका है। क्रिश्चियनों को सताने से देखा कि कमजोर लोगों का विश्वास और आशा ख्रीस्त पर घटने के बजाय बढ़ता गया। उन्हें खूटे की आग और तलवार की धार हिला न सकी। अपने हत्यारों के सामने उन्होंने ख्रीस्त जैसा उत्तम चरित्र का नमूना दिया। उसे देख कर बहुत से लोग विश्वास करने लगे कि ईश्वर की आत्मा उन पर है और यही सत्य हैं शैतान को सोचना पड़ा कि उसे अब कुछ नम्र होना है। उसने बाईबिल के सिद्धान्तों को तथा परम्परा के नियमों में परिवर्तन लाने की कोशिश की। इस प्रकार से उनको भी पथभ्रष्ट कर दिया जिन का विश्वास बाईबिल पर अटल था। उसने ईष्र्या करना बन्द किया। अपने साथियों को बताया कि कठोर सताहट का रास्ता छोड़ कर उन्हें मण्डली में एक दूसरे को लड़ाई करावें। यह लड़ाई विश्वास के लिये नहीं पर विभिन्न परम्परा नियमों के पालन के लिये है। संसार का झूठा लाभ के लिये उसने कलीसिया के लोगों को संसार की मोह-माया की ओर मोड़ दिया। अब लोग ईश्वर के ऊपर भरोसा करना छोड़ने लगे। धीरे-धीरे चर्च ने अपनी क्षमता खोयी। सच्चाई का प्रचार करना इसने छोड़ दिया। लोग संसार की मोह-माया में फिर से लिप्त हो गए। अब कलीसिया के लोग अलग और अनोखा नहीं रहे जैसा वे भंयकर सताहट के समय थे। कैसे सोना धूमिल हो गया। कैसे मण्डली की दशा चोखा सोना से मटमैली हो गई? 1SG 97.1
मैंने देखा कि यदि कलीसिया अपना अलगपन और अनोखापन को बरकरार रखता तो पवित्रात्मा की शक्ति उस पर रहती जैसा कि चेलों के समय में थी। बीमार लोग चंगे होते, भूग्रस्त लोगों से भूत निकाले जाते और वह एक महान शक्ति का जरिया बनता, जिससे उसके दुश्मन डरते। 1SG 98.1
मैंने देखा कि एक बड़ा दल ने ईसाई मत को स्वीकार कर लिया पर ईश्वर ने उन्हें मान्यता नहीं दी या ग्रहण नहीं किया। क्योंकि उन के चरित्र में कलंक था। शैतान ने धर्म का पोशाक पहनाया था पर चरित्र नहीं था। वह बहुत चाहता था कि लोग उन्हें ईसाई समझ लें। वे तो यीशु का क्रूसघात और पुनरूत्थान पर भी विश्वास करते थे। शैतान और उसके सभी दूत डर रहे थे कि कहीं वे यीशु पर औरों की तरह सच्ची आस्था (श्रद्धा) रखें। पर यदि उनका यह विश्वास उन्हें अच्छा काम करने के लिये प्रेरित नहीं करेगा और ख्रीस्त जैसा आत्मोत्सर्गी (अपने को इन्कार करनेवाला) न बनें तो उस (शैतान) को कोई चिन्ता नहीं है। क्योंकि वे तो नाम मात्र के लिये क्रिश्चियन हुए हैं पर सारा काम-धाम तो सांसारिक जैसा है। यदि वे अपना विश्वास को मजबूत न बनावें तो उन्हें वह और अच्छी तरह से अपना काम में व्यवहार करेगा। क्रिश्चियन के नाम से उन्होंने अपनी गलतियों को छिपाया। वे अपना अपवित्र स्वभाव को छोड़ न सके और बुरी इच्छाओं को भी दबा न सके। इस प्रकार की चाल-चलन से उन्होंने ख्रीस्त का नाम को बदनाम कर दिया। जो लोग सच्चाई और सीधाई से धर्म के मार्ग पर चलते थे उन्हें भी बदनाम किया। 1SG 98.2
पादरियों ने इन ढोंगी क्रिश्चियनों के पंसद लायक उपदेश दिये। यही तो शैतान चाहता था। वे यीशु और बैबल की कड़वी सच्चाई को प्रचार करने का साहस नहीं करते थे। यदि वे इसका प्रचार करते थे तो ढोंगी क्रिश्चियन नहीं सुनते। बहुत से लोग धनी थे और शैतान और उसके दूतों से कुछ भी अच्छा नहीं थे पर वे चर्च में रहना पसन्द करते थे। ख्रीस्त का धर्म जगत की दृष्टि से लोकप्रिय और आदरवान तो बना पर सच्चाई नहीं रही। ख्रीस्त की शिक्षा से यह बहुत भिन्न दिशा की ओर जाने लगी। ख्रीस्त का सिद्धान्त और जगत का सिद्धान्त में काफी अन्तर था। जो ख्रीस्त के पीछे आना चाहता था उसे तो जगत का मोह-माया छोड़ना था। धर्म में इस प्रकार की नरमी लाने वाले शैतान और उसके दूत ही थे। उन्होंने योजना रची और नकली ईसाईयों ने काम को आगे बढ़ाया। पापी और दिखावटी धर्म मानने वाले मण्डली में एक जुट हो गए। आनन्ददायक झूठी कहानियाँ सुनाने लगे और सुनी जाने लगीं। पर, यदि उनके बीच बैबल की सच्चाई सुनायी जाती थी तो वे कान बन्द कर लेते थे। ख्रीस्त के पीछे चलनेवालों और जगत से प्रेम करनेवालों के बीच कोई अन्तर नहीं था। मैंने देखा कि यदि मण्डली के सदस्यों का चरित्र रूपी ऊपरी वस्त्र को उठाया जाता तो उनमें बुराई, पाप, भ्रष्टाचार और कई घिनौने काम दिखाई देते और उन्हें क्रिश्चियन करने से संकोच करते पर शैतान की सन्तान करने से अनुचित न होता। क्योंकि वे उसके समान ही काम करते थे। यीशु और स्वर्गीय दूत इस दशा को देख कर सोच में पड़ जाते थे यानी वह सोचनीय दशा थी। फिर भी मंडली के लिये ईश्वर का संवाद दूसरा ही था। वह तो प्रमुख और पवित्र था। यदि इसे तन-मन से ग्रहण किया जाता तो चर्च में पूर्ण सुधार होता। जीवित साक्षी देने का काम को जागृत करता। पापियों और ढोंगियों को हटा कर कलीसिया को शुद्ध करता। इसे पुनः ईश्वर की दृष्टि में शुद्ध और पवित्र बनाता। 1SG 99.1