कुलपिता और भविष्यवक्ता

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अध्याय 3—प्रलोभन और पतन

यह अध्याय उत्पत्ति 3 पर आधारित है।

अब शैतान स्वर्ग में विद्रोह फैलाने को स्वतंत्र नहीं था, इसलिये परमेश्वर के विरूद्ध उसकी शत्रुता ने मानव जाति के विनाश के षड़यंत्र में एक नया कार्यक्षेत्र पाया। अदन के पवित्र युगल की सुख और शान्ति में उसे उस परमानन्द की परिकल्पना होती थी जो उसने गँवा दिया था। ईर्ष्या से प्रभावित होकर उसने निश्चय कर लिया कि वह उन्हें आज्ञा के उल्लंघन के लिये उकसाकर उन्हें अपराध बोध और पाप की सजा का भोगी बनाएगा। वह उनके प्रेम को अविश्वास में और उनके महिमागान को सृजनहार के विरूद्ध उलाहना में बदल देगा। इस तरह न केवल वह निर्दोष प्राणियों को उसी दुर्गति में धकेलेगा जिसे वह स्वंय भुगत रहा था, वरन परमेश्वर को भी असम्मानित करेगा और स्वर्ग को शोकाक॒ल करेगा। PPHin 40.1

हमारे पूर्वजों को उस खतरे के प्रति आगाह किया गया था जो उन्हें डरा रहा था। स्वर्गीय सन्देशवाहकों ने उन्हें शैतान के पतन और उनके विनाश हेतु उसके षड़यंत्रो की जानकारी दी और ईश्वरीय सत्ता का स्वभाव विविधता से बताया जिसे बुराई का राजकुमार पराजित करने का प्रयत्न कर रहा था। परमेश्वर के न्यायसंगत आदेशों के प्रति अनाज्ञारिता के कारण ही शैतान और उसकी सेना का पतन हुआ था। कितना आवश्यक था, तब कि आदम और हवा उस व्यवस्था का मान रखें केवल जिसके द्वारा अनुशासन और निष्पक्षता का होना सम्भव था। PPHin 40.2

परमेश्वर की व्यवस्था उसी के समान पवित्र है। वह उसके इच्छाका प्रकटीकरण, उसके चरित्र की प्रतिलिपि और ईश्वरीय प्रेम और बुद्धिमता की आवश्यकता है ।सृष्टि का सामञअजस्य सब प्राणियों और सभी चेतन व अचेतन वस्तुओं की परमेश्वर की व्यवस्थासे सहमति पर निर्भर करता है। परमेश्वर ने ना केवल जीवित प्राणियों के शासन के लिये वरन प्रकृति के परिचालन केलिये भी व्यवस्था का प्रबन्ध किया है। सब कुछ निर्धारित नियमों के अधीन है जिनकी अवहेलना नहीं की जा सकती। हालाँकि प्रकृति में सब कुछ प्राकृतिक नियमों के अधीन है, पृथ्वीलोक में से केवल मनुष्य नैतिक व्यवस्था के अधीन है। सृष्टि की सर्वोच्च कृति, मानव को परमेश्वर ने अपनी अपेक्षाओं को, उसकी व्यवस्था के न्याय और उदारताको औरमनुष्य पर व्यवस्था के पवित्र अधिकारको समझने की योग्यता दी है। PPHin 40.3

स्वर्गदूतों के समान, अदनवासियों को परख अवधि में रखा गया था; उनकी खुशहाल अवस्था को तभी कायम रखा जा सकता था जब वे परमेश्वर की व्यवस्था के प्रति निष्ठावान रहते। वे या तो आज्ञापालन करके जीवित रह सकते थे, या आज्ञा का उल्लंघन करके विनाश को प्राप्त हो सकते थे। परमेश्वर ने उन्हें बहुमूल्य आशीषों का प्राप्तकर्ता बनाया था, लेकिन यदि वे उसकी इच्छा की उपेक्षा करते तो वह जिसने पाप करने वाले स्वर्गदूतों कोभी क्षमानहीं किया, उन्हें क्षमा नहीं कर सकता था। अवज्ञा उन्हें उसके उपहारों से वंचित कर देती और वे पीढ़ा और विनाश को प्राप्त होते । PPHin 41.1

स्वर्गदूतों ने उन्हें चेतावनी दी थी कि वे शैतान की युक्तियों से सावधान रहे, क्‍योंकि उन्हें लुभाने के उसके प्रयत्न बने रहेंगे। जब तक वे परमेश्वर के आज्ञाकारी थे, बुराई उन्हें क्षति नहीं पहुँच सकती थी, क्‍योंकि आवश्यकता पड़ने पर उनकी सहायता के लिये स्वर्ग के हर दूत को उनके लिये भेजा जाता। यदि वह शैतान की प्रथम-फुसलाहट का दृढ़तापूर्वक प्रतिरोध करते तो वे स्वर्ग के सन्देशवाहकों के समान सुरक्षित होते। लेकिन उनके एक बार प्रलोभन के सामने समर्पण करने से उनका स्वभाव इतना पथभ्रष्ट हो जाता कि शैतान का विरोध करने के लिये उनके पास सामर्थ्य और प्रवित न होती। PPHin 41.2

उनकी आज्ञाकारिता और परमेश्वर के प्रति प्रेम के परीक्षण हेतु ज्ञान के वृक्ष का प्रयोजन था। परमेश्वर वे उचित समझा कि वाटिका की प्रत्येक चीज के उपयोग से सम्बन्धित केवल एक ही प्रतिबन्ध लगाया जाए, लेकिन इस विषय में यदि वे उसकी इच्छा को अमान्य ठहराते तो वे उल्लंघन के दोषी हाते। शैतान को उनका लगातार प्रलोभनोंद्वारा पीछा नहीं करना था। उसकी उन तक पहुँच वर्जित वृक्ष तक सीमित थी। यदि वे इस वृक्ष की विशेषता की जांच-पड़ताल का प्रयत्न करते तो वे शैतान की चालों के शिकार हो जाते। उन्हें परमेश्वर द्वारा भेजी गई इस चेतावनी पर गंभीरता से ध्यान देने की सलाह दी गई थी और उसके द्वारा दिये गए निर्देश में सन्तुष्ट होने को कहा गया था। PPHin 41.3

अपने काम को गुप्त तरीके से पूरा करने के लिये शैतान ने अपने माध्यम के रूप में सांप का उपयोग किया।यह भेष धोखा देने की उसकी योजना के अनुकूल था। उस समय सांप धरती का सबसे सुन्दर और बुद्धिमान जन्तु था। वह पंखो से सुसज्जित था और हवा में उड़ते हुए वह अद्भुत तेजस्विता का प्रदर्शन करता था, क्‍योंकि उसमें तपाए हुए सोने की चमक और रंग थे। वर्जित वृक्ष केफलों से लदी शाखाओं पर बैठे हुए और स्वाद भरे फल का आनन्द लेते हुए, वह देखने वाले की आँखें के लिए आनंदमयी और आकर्षण का केन्द्र था। इस तरह, शान्ति की वाटिका में, विनाशक अपने शिकार के लिये सर्तक होकर छुपा बैठा था। PPHin 41.4

जब आदम और हवा वाटिका में अपने प्रतिदिन के काम में व्यस्त थे, स्वर्गदूतों ने हवा को अपने पति से अलग ना होने को सचेत किया था; पति के साथ होने पर, उसे प्रलोभन का शिकार बनने का कम खतरा था। लेकिन अपने सुखद कार्य में मग्न, वह अनजाने में आदम से अलग हो गईं। अपने-आप को अकेला पाकर उसे खतरे का आभास हुआ, लेकिन उसने यह सोचकर अपने डर मन से निकाला कि उसके पास बुराई को पहचानने और सामना करने की पर्याप्त शक्ति और सामर्थ्य है। स्वर्गदूत की चेतावनी से बेपरवाह उसने अपने आपको मिली-जुली जिज्ञासा और विस्मय से वर्जित वृक्ष को टकटकी लगाए देखता पाया ।फल बेहद सुन्दर था और उसने स्वयं से प्रश्न किया कि परमेश्वर ने उसे उनसे रोक कर क्‍यों रखा था। यह बहकाने वाले के लिये अवसर था। मानों कि वह उसके मन की प्रक्रिया को भांप सकता था, उसने हवा से कहा, “हे स्त्री क्या परमेश्वर ने सचमुच तुमसे कहा कि तुम बाग के किसी पेड़ से फल न खाना?” हवा को आश्चर्य हुआ क्योंकि उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह अपने ही विचारों की गूँज सुन रही थी। लेकिन साँप मीठी आवाज में उसकी अत्यधिक सुन्दरता का गुणगान करता रहा। और उसके कथन अप्रिय नहीं थे। उस जगह से भागने के बजाय वह एक सापं को बोलता सुनने के लिये आश्चर्य करते हुए रूकी रही। यदि स्वर्गदूतों समान प्राणी ने संबोधित किया होता, तो उसमें डर उत्पन्न होता, लेकिन उसने कभी भी नहीं सोचा कि वह लुभावना साँप पतित शत्रु का माध्यम बन सकता था। PPHin 42.1

प्रलोभक के फूसलाने वाले प्रश्न का उसने उत्तर दिया “इन वाटिका के वृक्षों के फल हम खा सकते हैं, पर जो वृक्ष वाटिका के बीच में है, उसके फल के विषय में परमेश्वर ने कहा है कि न तो तुम उसको खाना और न उसको छूना, नहीं तो मर जाओगे। तब सर्प ने स्त्री से कहा, तुम निश्चय न मरोगे, वरन्‌ परमेश्वर आप जानता है कि जिस दिन तुम उसका फल खाओगे उसी दिन तुम्हारी आँखें खुल जाएंगी और तुम भले बुरे का ज्ञान पाकर परमेश्वर के तुल्य हो जाओगे” । PPHin 42.2

शैतान ने कहा कि उस वृक्ष के फल को खाने से वे अस्तित्व के ऊंचे स्तर को प्राप्त करेंगे और ज्ञान के व्यापक क्षेत्र में प्रवेश करेंगे। उसने स्वयं वर्जित वृक्ष के फल का सेवन किया था, जिसके फलस्वरूप उसे वाकशक्ति प्राप्त हुई थी। और उसने चालाकी से सुझाया कि परमेश्वर ईर्ष्या के कारण उन्हें उस फल से वंचित रख रहा था, नहीं तो उनका स्तर भी परमेश्वर के तुल्य हो जाएगा। जीवन के वृक्ष के पास विवेक और शक्ति प्रदान करने की अद्भुत योग्यता थी, परमेश्वर ने उसके फल को चखने या छूने को मना किया था। प्रलोभक ने सूचित किया कि ईश्वरीय चेतावनी वास्तव में पूर्ण होने के लिये नहीं थी। उसे केवल उन्हें डराने के लिये योजनाबद्ध किया गया था। उनके लिए मृत्यु कैसे सम्भव थी? क्या उन्होंने जीवन के वृक्ष से नहीं खाया था? परमेश्वर उन्हें उच्च विकास के स्तर पर पहुँचने से, अधिक प्रसन्नता पाने से रोकने का प्रयत्न कर रहा था। PPHin 43.1

आदम के समय से वर्तमान तक शैतान का काम ऐसा ही रहा है और उसने इसमें सफलता पाई है। वह मनुष्य को परमेश्वर के प्रेम पर विश्वास न करने और उसके विवेक पर सन्देह करने को उकसाता है ।ईश्वरीय विवेक और सामर्थ्य की गुप्त बातों को समझने का श्रद्धाहीन कौतूहल, एक अशांत जिज्ञासा की भावना को उत्तेजित करने के लिये शैतान हमेशा प्रयत्नशील रहता है। जो परमेश्वर ने गुप्त रखा है, उसे ढूंढ निकालने का प्रयत्न करते-करते मनुष्य उस सत्य को ध्यान में नहीं ला पाता है जिसे परमेश्वर ने प्रकट किया है और जो उद्धार के लिये आवश्यक है। मनुष्य को यह विश्वास दिलाकर कि वे ज्ञान के एक अदभुत क्षेत्र में प्रवेश कर रहे है, शैतान उन्हें अवज्ञा के लिये उकसाता है। लेकिन यह सब छल है। उन्‍नति के अपने विचारों से हर्षित होकर, परमेश्वर की अपेक्षाओं को कुचलते हुए, मनुष्य अपने कदम उस राह पर रख देता है, जो अपकर्ष और मृत्यु की ओर जाता है। PPHin 43.2

शैतान ने पवित्र दंपति को दर्शाया कि परमेश्वर की व्यवस्था को तोड़ने से वे लाभान्वित होंगे। क्या हम आज भी ऐसा ही तक नहीं सुनते? कई लोग परमेश्वर की आज्ञाओं का पालन करने वालों की संकीर्णता की बात करते हैं और स्वयं दावा करते हैं कि वे खुले विचारों के है और अधिक स्वतन्त्रता का आनन्द उठाते हैं। यह अदन में जो आवाज आई थी उसी की प्रतिध्वनि है, “जिस दिन तुम इस फल को खालोगे” ईश्वरीय अपेक्षा की अवज्ञा करोगे, “तुम परमेश्वर तुल्य हो जाओगे”? शैतान ने दावा किया कि वर्जित वृक्ष का फल खाने से उसका कल्याण हुआ, लेकिन उसने यह प्रतीत नहीं होने दिया कि आज्ञा का उल्लघंन करने के कारण उसे स्वर्ग से बहिष्कृत कर दिया गया था, हालाँकि उसे ज्ञात हो गया था कि पाप का परिणाम अनंत नुकसान होता है, लेकिन उसने दूसरों को अपनी स्थिति में लाने के लिये अपनी पीड़ा को छुपा लिया। इसलिये अब भी अपराधी अपने वास्तविक चरित्र को छुपाने का प्रयत्न करता है, वह पवित्र होने का दावा कर सकता है, लेकिन उसका यह उत्कृष्ट ढोंग उसे कपटी के रूप में और भी खतरनाक बना देता है। परमेश्वर की व्यवस्था को कुचलता हुआ और दूसरों को भी उनके अनंत विनाश की ओर ले जाते हुए वह शैतान के पक्ष में है। PPHin 43.3

हवा ने शैतान की बातों पर विश्वास किया, लेकिन इस विश्वास ने उसे पाप की सजा से नहीं बचाया। उसने परमेश्वर के शब्दों पर विश्वास नहीं किया और यही उसके पतन का कारण बना। न्याय के समय मनुष्य को सजा इसलिये नहीं मिलेगी कि उसने जानबूझकर झूठ पर विश्वास किया, बल्कि इसलिये कि उसने सत्य पर विश्वास नहीं किया और सत्य क्या है, ये जानने के अवसर पर ध्यान नहीं दिया। शैतान के काुर्तक के होने के बावजूद, परमेश्वर की अवज्ञा विनाशकारी होती है। सत्य क्‍या है-- यह जानने के लिये हमें अपने (हृदयों को तैयार करना चाहिये, वे सारे सबक जो परमेश्वर ने वचन में अंकित करवाये हैं। वह हमें आगाह करने और निर्देश देने के लिये हैं। ये हमें छलावे से बचने के लिये दिये गए है। इनकी उपेक्षा का परिणाम हमारा विनाश होगा। जो भी परमेश्वर के वचन का खण्डन करता है वह निश्चय ही शैतान से उत्पन्न होता है ।सर्प-रूपी शैतान ने वर्जित वृक्ष का फल तोड़ा और हिचकिचाती हवा के हाथों में थमा दिया। फिर उसने हवा को उसी के कथन स्मरण कराया कि परमेश्वर ने उन्हें इस फल को छूने से मना किया था, अन्यथा वे मर जाएंगे। जिस तरह फल को छूने से उसे कोई क्षति नहीं पहुँची, उसी तरह फल को खाने से भी कोई नुकसान नहीं होगा। यह देखकर कि उसके ऐसा करने का कोई बुरा परिणाम नहीं निकला, हवा और निर्भीक हो गई। “जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने में अच्छा और देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है, तब उसने उस में से तोड़कर खाया” वह स्वाद में अच्छा था, और खाने के साथ ही उसने एक सजीव करने वाली शक्ति का अनुभव किया और वह स्वयं को अस्तित्व के ऊंचे स्तर में प्रवेश होने की कल्पना करने लगी। निडर होकर उसने फल को तोड़ा और खाया। और अब, स्वयं अपराध करने के बाद, वह अपने ही पति के पतन की प्रक्रिया में शैतान की कर्मक बन गई। अद्भुत व अप्राकृतिक उत्साह की अवस्था में, हाथों में वर्जित फल को पकड़े हुए, वह आदम की उपस्थिति में गई और सब जो हुआ था, उसका वर्णन किया। PPHin 44.1

आदम के चेहरे पर उदासी का भाव छा गया। वह अचम्मित और भयभीत प्रतीत हो रहा था। हवा की बातों के प्रत्युत्तर में उसने कहा कि यह वही शत्रु होगा जिसके प्रति उन्हें सावधान किया गया था और ईश्वरीय दण्डादेश के अनुसार उसकी मृत्यु निश्चित थी। उत्तर देते हुए हवा ने आदम से फल को खाने का आग्रह किया और सांप के कहे शब्दों को दोहराया कि वे यकीन नहीं मरेंगे। उसने तक रखा कि यह सच होगा क्योंकि उसे परमेश्वर के अप्रसन्न होने का कोई संकेत नहीं मिला था, बल्कि इसके विपरीत उसने एक रोमांचक और प्राणपोषक प्रभाव की अनुभूति की और उसे प्रतीत हुआ कि उसकी हर क्षमता नया जीवन पा गई थी, जो उसकी कल्पना अनुसार स्वर्ग के संदेशवाहकों से प्रेरित थी । PPHin 45.1

आदम समझ गया कि हवा ने परमेश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने, उस एकमात्र प्रतिबन्ध का निरादार किया था जिसे उनके प्रेम और निष्ठा के परीक्षण के लिये रखा गया था। उसके मन में भंयकर संघर्ष हुआ। उसने शोक मनाया कि उसने हवा को अपने से अलग होकर घूमने की अनुमति दी। लेकिन अब कार्य सम्पन्न हो गया था, उसे उससे अलग होना था जिसकी संगति में उसकी प्रसन्‍नता निहित थी। वह ऐसा कैसे होने देता। आदम ने परमेश्वर और उसके पवित्र दूतों की संगति का आनंद उठाया था। उसने सृष्टिकर्ता की महिमा को देखा था। परमेश्वर के प्रति ईमानदार होने पर, मानव जाति के लिये जो नियति प्राप्त होने थी, उसे आदम समझता था। फिर भी आदम की दृष्टि में सबसे ज्यादा मूल्यवान उपहार को खोने के डर ने इन सब आशीषों को पीछे धकेल दिया । हवा के लिये आदम का प्रेम, परमेश्वर के प्रति प्रेम, आभार और निष्ठा से भारी पड़ा। वह उसी के शरीर का भाग थी और वह उनसे अलग होने का विचार नहीं सह सका। उसने यह नहीं समझा कि वह अनंत शक्ति जिसने धरती की धूल से उसकी सृष्टि, एक जीवित, सुन्दर आकार के रूप में की थी, और प्रेम से उसके लिये एक साथी को बनाया था, वह हवा की भरपाई कर सकता था। उसने हवा के दुर्भाग्य को बांटने का निश्चय किया, यदि उसे मरना था, तो वह भी उसके साथ मृत्यु को स्वीकार करेगा और फिर उसने यह भी सोचा कि बुद्धिमान सांप के बोले शब्द सत्य हो सकते थे। हवा उसके सामने थी, उतनी ही सुन्दर और निर्दोष जैसे कि अवज्ञा के इस कार्य से पहले थी। वह आदम के प्रति पहले से अधिक प्रेम की अभिव्यक्ति करने लगी। उसमें मृत्यु का कोई संकेत नहीं दिखा, इसलिये आदम ने परिस्थितियों का सामना करने का संकल्प किया। उसने फल को छीना और जल्दी से खा लिया। PPHin 45.2

आज्ञा के उल्लंघन पश्चात, आदम कल्पना करने लगा कि वह अस्तित्व की उच्चतम अवस्था में प्रवेश कर रहा है, लेकिन जल्द ही अपने पाप के विचार ने उसे भय से भर दिया। वह वायु जिसका तापमान अब तक मन्द और एक समान था, अब उन्हें ठिठुरा रही थी। प्रेम और शान्ति की जगह उन्हें, पाप का बोध, भविष्य के लिये डर और आत्मा की नग्नता की अनुभूति हो रही थी। जिस प्रकाश के आवरण ने उन्हें ढांके रखा था, वह अदृश्य हो गया था, और उसकी जगह उन्होंने अपने लिये आवरण बनाया क्‍योंकि निर्वस्त्र होते हुए वे परमेश्वर और पवित्र स्वर्गदूतों से आँखें नहीं मिला सकते थे। PPHin 46.1

अब वह अपने पाप का वास्तविक चरित्र देखने लगे। आदम ने अपनी संगिनी को उससे दूर जाने की मूर्खता कर बैठने के लिये और सांप को अपने साथ खिलवाड़ करने देने के लिये उलाहना दी। लेकिन, वे दोनों अपने-आप को विश्वास दिलाते रहे कि जिसने उन्हें अपने प्रेम के इतने प्रमाण दिए थे इस एक अतिक्रमण को क्षमा कर देगा या वे ऐसे भयानक दण्ड के पात्र न होंगे जैसे कि वे डर रहे थे। PPHin 46.2

शैतान अपनी सफलता से फूले नहीं समा रहा था। उसने स्त्री को परमेश्वर के प्रेम पर सन्देह करने को, उसकी बुद्धिमता पर संशय करने को, उसकी आज्ञा का उल्लंघन करने को, भरमाया और उसके माध्यम से आदम को पराजित किया। लेकिन महान विधि-निर्माता आदम और हवा को उनके अतिक्रमण का परिणाम विदित कराने वाला था। वाटिका में ईश्वरीय उपस्थिति प्रकट होती थी। अपनी सरलता और पवित्रता में उन्होंने अपने सृष्टिकर्ता के आगमन का प्रसन्‍नतापूर्वक स्वागत किया था। लेकिन अब वे डर कर भागे और वाटिका के अगाध गुप्त स्थानों में छुपने का प्रयत्न करने लगे। लेकिन “तब यहोवा परमेश्वर ने पुकार कर आदम से पूछा, तू कहां हैं? उसने कहा, मैं तेरा शब्द बारी में सुनकर डर गया, क्‍योंकि में नग्न था, इसलिये छुप गया। उसने कहा, किस ने तुझे चिताया कि तू नग्न है? जिस वृक्ष का फल खाने को मैंने तुझे मना किया था, क्‍या तूने उसका फल खा लिया”? PPHin 46.3

आदम ना तो अपने पाप की अस्वीकृति कर सकता और न ही कोई बहाना बना सकता था; पछतावा प्रकट करने के बजाय, उसने अपनी पत्नी को आरोपित करने की चेष्ठा की, और इस तरह परमेश्वर को दोषी ठहराया, “जिस स्त्री को तूने मेरे संग रहने को दिया है, उसी ने उस वृक्ष का फल मुझे दिया, और मैंने खाया” । वह, जिसने हवा के प्रेम में, जानबूझकर परमेश्वर की सहमति को, अदन की वाटिका में अपने घर को, सुखद अनंत जीवन को गवां देना पंसद किया, अब अपने पतन के पश्चात्‌ अपनी संगिनी और अपने सृष्टिकर्ता को भी अतिक्रमण के लिये उत्तरदायी ठहरा सकता था। पाप का प्रभाव इतना भयानक है। PPHin 47.1

जब स्त्री से पूछा गया, “यह तूने क्या किया?” उसने उत्तर दिया, “सर्प ने तुझे बहका दिया, तब मैंने खाया। तूने सर्प की सृष्टि क्योंकि? तूने उसे अदन में प्रवेश क्‍यों होने दिया?” अपने पाप के बहाने का तात्पर्य इन्हीं प्रश्नों में था। इस तरह, उसने भी आदम की तरह अपने पतन का आरोप परमेश्वर पर लगाया। स्वयं तक-संगत होने की भावना का उदय झूठ से हुआ, यह गलती हमारे प्रथम अभिभावा कों ने शैतान के प्रभाव के आगे समर्पण करते ही और तत्पश्चात आदम के सभी पुत्र और पुत्रियों ने प्रदर्शित की। अपने पापों का दीनता से अंगीकार करने के बजाय, वे दूसरों पर, परिस्थितियों पर या परमेश्वर पर आरोप लगाकर, अपने आप को बचाने की कोशिश करते है- उसकी आशीषों को भी उसके विरूद्ध बड़बड़ाहट का अवसर बना लेते हैं। PPHin 47.2

फिर परमेश्वर ने सर्प को दण्डाज्ञा दी, “तूने जो यह किया है इसलिये तू सब घरेलू पशुओं और सब बनेले पशुओं से अधिक शापित है, तू पेट के बल चला करेगा, और जीवन भर मिट्टी चाटता रहेगा” सर्प को ईश्वरीय न्याय के कोप का भागीदार होना पड़ा, क्‍योंकि उसे शैतान के माध्यम जैसे प्रयोग किया गया था। PPHin 47.3

धरती के सबसे सुन्दर और प्रशंसा योग्य जन्तु को सबसे घृणित रेंगने वाले जानवर में परिवर्तित होना था, और मनुष्य और जन्‍्तु दोनो के डर और घृणा का पात्र होना था [सर्प को संबोधित किया गया अगला कथन शैतान से सम्बन्धित था जो उसकी पराजय और उसके विनाश की ओर संकेत करता है “और में तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा। PPHin 47.4

हवा को उस दु:ख और पीढा से परिचित कराया गया जो उसके हिस्से में आना था। और परमेश्वर ने कहा, “तेरी लालसा तेरी पति की और होगी, और वह तुझ पर प्रभुता करेगा।” सृष्टि के समय परमेश्वर ने उसे आदम के तुल्य बनाया था। यदि वे परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी रहते तो- प्रेम की उत्तम व्यवस्था के साथ सामन्जस्य बनाए रखते- तो उनमें आपसी सामन्जस्य बना रहता; लेकिन पाप के द्वारा मतभेद उत्पन्न हुआ और जीवन और सामन्जस्य तभी सुरक्षित हो सकता था जब उनमें से एक आत्म समर्पण करता। हवा ने पहले पाप किया और वह प्रलोभन का शिकार हुई क्‍योंकि वह आदम से दूर चली गईं जो कि ईश्वरीय आदेश के प्रतिकूल था। उसके आग्रह पर आदम ने पाप किया और अब उसे अपने पति के अधीनस्थ रखा गया। यदि परमेश्वर की व्यवस्था से सम्बन्धित सिद्धांतों को पतित वंश ने अपनाया होता तो यह दण्ड, जो पाप के फलस्वरूप दिया गया था, उनके लिए आशीष का कारण होता, परन्तु पुरूष द्वारा आधिपत्य के दुरूपयोग के कारणवश कई महिलाओं का जीवन कटु और कष्टदायी हो गया। PPHin 48.1

अदन में अपने पति के पास हवा पूर्णतया प्रसन्‍न थी, लेकिन आधुनिक चंचल हवाओं की तरह परमेश्वर के नियुकत किये गए स्तर से उच्चतम स्तर में प्रवेश करने की आशा से वह विचलित हो गईं। अपनी प्रारम्भिक स्थिति से ऊपर उठने का प्रयास करने में, वह उससे बहुत नीचे गिर गई। यही परिणाम उनका भी होगा जो परमेश्वर की योजना के अनुसार अपने जीवन के दायित्व को प्रसन्‍नतपूर्वक स्वीकार करने में अनिच्छुक होते हैं। उन पदों पर, जिसके लिए परमेश्वर ने उन्हें नहीं बनाया है, पहुँचने के प्रयत्नों मे वह उस जगह को खाली छोड़ देता है, जहां वे आशीष का कारण हो सकते हैं। उच्चतम स्थिति की अभिलाषा में कई एक ने वास्तविक नारी सुलभ गरिमा और चरित्र की उत्कृष्टता का त्याग किया है और उस काम को अधूरा छोड़ दिया है जिसके लिए परमेश्वर ने उन्हें नियुक्त किया था। PPHin 48.2

आदम को परमेश्वर ने कहा, “तूने जो अपनी पत्नी की बात सुनी, और जिस वृक्ष के फल के विषय मैंने तुझे आज्ञा दी थी कि तू उसे न खाना उसको तूने खाया है, इसलिये भूमि तेरे कारण शापित है, तू उसकी उपज जीवनभर दुख के साथ खाया करेगा, और वह तेरे लिये कांटे और ऊँटकटारे उगाएगी, और तू खेत की उपज खाएगा और अपने माथे के पसीने की रोटी खाया करेगा और अन्त में मिट्टी मे मिल जाएगा, क्‍योंकि तू उसी से निकाला गया है, तू मिट्टी तो है और मिट्टी ही में फिर जाएगा।” PPHin 48.3

यह परमेश्वर की इच्छा नहीं थी कि निष्पाप युगल बुराई के बारे में कुछ भी जाने। जो भी अच्छा था, वह उसने उन्हें उदारता से दिया था और बुराई को रोक कर रखा था। लेकिन, उसकी आज्ञा के विपरीत, उन्होंने वर्जित वृक्ष से फल खाया और अब यदि उम्रभर के लिये खाते रहते-तो उन्हें बुराई का ज्ञान हो जाता। उम्रभर के लिये। उसी समय से मानव जाति का शैतान के प्रलोभनों से पीड़ित होना लिखा था। सुखदायी श्रम के बदले अब उनके हिस्से में चिन्ता और कठिन परिश्रम था। उन्हें निराशा, दुःख, पीढ़ा और अन्तत: मृत्यु का पात्र होना था। PPHin 49.1

पाप के कोप के कारण समस्त प्रकृति को मनुष्य को परमेश्वर के विरूद्ध अतिक्रमण का स्वभाव और परिणाम का साक्ष्य होना था। परमेश्वर ने आदम को पृथ्वी और समस्त जीव- जन्तुओं पर राज करने के लिये बनाया था। जब तक आदम स्वर्ग के प्रति निष्ठावान था, समस्त प्रकृति उसके अधीन थी। लेकिन जब उसने ईश्वरीय व्यवस्था का विरोध किया, निम्न जीव-जन्तु उसके शासन के विरूद्ध हो गए ।इस प्रकार कृपालु प्रभु, मनुष्यों को उसकी व्यवस्था की पवित्रता को दिखलाकर, उन्हें उन्हीं के अनुभव से व्यवस्था की थोड़ी सी भी अवहेलना के खतरे से आगाह किया । PPHin 49.2

और मनुष्य का कठिन परिश्रम से भरा जीवन भी प्रेम से प्रेरित था। यह अनुशासन उसके पाप के संदर्भ में आवश्यक था, जिससे उसकी प्रवृति और मनोभाव की आसक्ति पर रोक लग सक और उसमें संयम उत्पन्न हो सकें। यह पाप के फलस्वरूप विनाश और पतन से मनुष्य को ऊपर उठाने की परमेश्वर की योजना का हिस्सा था। PPHin 49.3

हमारे प्रथम अभिभावकों को दी गईं चेतावनी- “जिस दिन तू उसका फल खाए उसी दिन अवश्य मर जाएगा” इसका यह तात्पर्य नहीं था कि उनका उसी दिन मरना तय था जिस दिन उन्होंने वर्जित फल को खाया था; लेकिन उस दिन अखण्डनीय दण्डाज्ञा की घोषणा होनी थी। आज्ञाकारिता की शर्त पर उन्हें अमरता का आश्वासन दिया गया, पर आज्ञा का उल्लंघन करने पर वे हमेशा के जीवन को गंवा देते। उसी दिन उनका मरना तय हो जाता। PPHin 49.4

अन्तहीन अस्तित्व का स्वामी होने के लिये मानव को जीवन के वृक्ष का सेवन करते रहना है ।।इसके अभाव में उसकी जीवन शक्ति धीरे-धीरे घट जाती और फिर जीवन विलुप्त हो जाता। यह शैतान की योजना थी कि आदम और हवा आज्ञा का उल्लंघन कर परमेश्वर को कोधित करें। और फिर क्षमा ना पाने की स्थिति में, जीवन के वृक्ष का फल खाकर वे पाप और दु:ख के अस्तित्व को चिरायु बना देते-शैतान की यही आशा थी। लेकिन मनुष्य के पतन के बाद, जीवन के वृक्ष पर स्वर्गदूतों का पहरा लगा दिया गया। इन स्वर्गदूतों के चारों तरफ प्रकाश की किरणे जो जगमगाती तलवार सी प्रतीत होती थी, शोभायमान थी। आदम के परिवार के किसी भी सदस्य को अनुमति नहीं थी कि सीमा लांधकर वह जीवनदायी फल का सेवन करे; इसलिये एक भी अमर पापी नहीं है। PPHin 50.1

हमारे प्रथम अभिभावकों द्वारा आज्ञा के उल्लंघन से जो दु:खों का प्रवाह हुआ उसे कई लोग एक छोटे से पाप के लिये असाधारण रूप से बुरी परिस्थिति मानते है, और वे मनुष्य के प्रति परमेश्वर के व्यवहार में बुद्धिमता और न्याय को सन्देह से देखते है। यदि वे इस विषय को गम्भीरता सेले तो वे अपनी गलती को पहचान सकते है। परमेश्वर ने मनुष्य को अपने ही स्वरूप में बनाया, पाप से मुक्त। धरती पर उन प्राणियों को निवास करना था, जो स्वर्ग॑दूतों से कुछ ही कम थे, लेकिन उनकी आज्ञाकारिता का परीक्षण होना था, क्‍योंकि परमेश्वर इस बात की अनुमति नहीं देता कि पृथ्वी पर ऐसे लोग बसे जो उसकी व्यवस्था को मान्यता न दें। लेकिन कृपा से भरपूर परमेश्वर ने आदम की कठोर परीक्षा नहीं ली। निषेध के इसी अल्पभार ने पाप को बहुत बढ़ा बना दिया। यदि आदम छोटी सी परीक्षा नहीं सहन कर सका तो यदि उसे उच्चतम उत्तरदायित्व दिया जाता तो वह इससे कठोर योग्यता की परीक्षा नहीं दे पाता। PPHin 50.2

यदि आदम की परीक्षा कठोर होती, तो वे, जिनके हृदय बुराई की तरफ झुके है, कहते “यह साधारण विषय है, परमेश्वर ऐसी तुच्छ बातों पर ध्यान नहीं देता।” और फिर तुच्छ समझे जाने वाले विषयों में अवज्ञा की निरंतरता बनी रहती । लेकिन परमेश्वर ने यह स्पष्ट किया है कि पाप किसी भी रूप में घृणास्पद है। PPHin 50.3

हवा को लगा कि वर्जितव॒क्ष का फल खाकर परमेश्वर की आज्ञाका उल्लंघन करना और अपने पति को भी आज्ञा उल्लंघन के लिये उकसाना भी छोटी सी बातहै। लेकिन उनके पाप ने संसार पर दुःख के जलद्दार खोल दिए । प्रलोभन के पल में कौन जान सकता है कि एक गलत कार्य का परिणाम कितना भंयकर हो सकता है?जो यह सिखाते है कि परमेश्वर की व्यवस्था उनको बाध्य नहीं करती, आग्रह करते है कि उसके सिद्धान्तों का पालन करना असम्भव है। लेकिन यदि यह सत्य होता, तो आदमको अवज्ञा की दण्डाज्ञा क्यों भुगतनी पड़ी? हमारे प्रथम अभिभावाकों के पाप ने संसार को अपराध बोध और संताप से ग्रसित कर दिया, और परमेश्वर की अच्छाई और कृपा के अभाव में, पूरी मानव जाति आशाहीन हो जाती। कोई स्वयं को धोखे में न रखे। “पाप का फल मृत्यु है ‘रोमियों 6:23। आज भी व्यवस्था का उल्लंघन उतना ही दण्डनीय है जितना कि मानवजाति के पिता के लिए था। PPHin 51.1

पाप के पश्चात आदम और हवा को अदन की वाटिका छोड़नी पड़ी। उन्होंने विनती की कि उन्हें अपने निष्कपटता और प्रसन्नता के घर में रहने दिया जाए। उन्होंने स्वीकार किया कि उन्होंने उस सुखद निवासमें रहने का अधिकार गंवा दिया था, लेकिन उन्‍होंने भविष्य में पूर्णतया परमेश्वर के प्रति आज्ञाकारी होने का प्रण लिया। लेकिन उनसे कहा गया कि उनका स्वभाव पाप से प्रभावित होकर दुष्ट हो गया था, बुराई से बचने की उनकीयोग्यता कम हो गई थी और उन्होंने शैतान के लिए उन तक सहजता से पहुँचने के लिए द्वारा खोल दिए थे। अपनी सरलता में उन्होंने प्रलोभनों के आगे समर्पण कर दिया था और अबचेतन अपराध बोध की अवस्था में, अपनी सत्यनिष्ठा को बनाए रखने के लिए उनके पास पर्याप्त सामर्थ्य नहीं था। PPHin 51.2

दीनता और अकथनीय उदासी से उन्होंने अपने सुन्दर निवास से विदा ली और उस धरती पर बसने को चले जहां पाप का कोप था। जो वातावरण सुहावना और अपरिवर्तनीय था, अब परिवर्तनशील हो गया। परमेश्वर ने उन्हें चमड़े के वस्त्र दिए ताकि वे ताप और शीत की तीव्रता से बच सकें । PPHin 51.3

जब उन्होंने मुझझाते हुए पुष्पों में और गिरते हुए पत्तो में विघटन के प्रथम संकेत देखे, तो वे शोक में डूब गए।। कोमल और क्षीण पुष्पों का अन्त तो दुःख का कारण था ही, पर स्वस्थ वृक्षों से पत्तो के झड़ने से यह तथ्य सामने आया कि हर जीवित प्राणी मृत्यु का पात्र है। PPHin 51.4

अदन की वाटिका, आदम के निर्वासित होने के बाद भी कई वर्षो तक पृथ्वी पर थी। पतित वंश को लम्बे समय तक अनुमति दी गईं कि वे अपनी निष्कपटता के घर को निहार सकें। उनका प्रवेश केवल स्वर्गदूतों से बाधित था। देवदूतों द्वारा संरक्षित अदन-वाटिका के द्वार पर ईश्वरीय महिमा का प्रदर्शन हुआ। यहां आदम और उसके पुत्र परमेश्वर की आराधना करने आते थे।यहाँ उन्होंने उस व्यवस्था के आज्ञाकारी होने के अपने प्रण को दोहराया, जिसकी अवज्ञा के कारण उन्हें अदन की वाटिका से निष्कासित किया गया था। जब पाप का समुद्र प्रथ्वी पर फैला, और मनुष्य की दुष्टता ने उनका विनाश जल-प्रलय द्वारा निश्चित किया, तब उसी हाथ ने, जिसने अदन का रोपण किया था, उसे धरती से उठा लिया। लेकिन अन्तिम पुनर्निमाण के समय, “जब एक नया आकाश और नयी पथ्वी” होगी (प्रकाशतवाक्य 21:1), उसे पहले से भी ज्यादा सुन्दरता से संवारकर पुनः स्थापित किया जाएगा। PPHin 52.1

फिर वे जिन्होंने परमेश्वर की आज्ञाओं को माना है,वे जीवन के वृक्ष के नीचे अमर प्रबलता की श्वास लेंगे, और युगानुयुग निष्पाप ग्रहों के निवासी परमेश्वर की सृष्टि के संपूर्ण कार्य का प्रतिरूप उस लुभावने उद्यान मे देखेंगे जो पाप से अनछआ है-प्रतिरूप उसका जो समस्त पृथ्वी का होता यदि मनुष्य ने सृष्टिकर्ता की उत्तम योजना को मान्यता दी होती । PPHin 52.2