महान संघर्ष

42/44

पाठ ३९ - पृथ्वी उजाड़ की दशा में

मैंने पृथ्वी पर दृष्टि की तो क्या देखा कि दुष्ट लोग मरे पड़े थे और उनके शव यहाँ-वहाँ बिखरे हुए थे। पृथ्वी के निवासियों को ईश्वर का क्रोध को सातवाँ दूत की विपत्ति के रूप में सहना पड़ा। उन्होंने गुस्सा होकर ईश्वर को साप दिया था। झूठे नबी और पादरी लोग ही ईश्वर का क्रोध के कारण थे। उनकी आँखें भीतर घुस गई थीं और उनकी जीभ मुँह के अन्दर अटकी थी। जबकि पाँवों के बल खड़े थे। ईश्वर की आवाज से जगत के सन्त छुड़ाए गए तब दुष्ट पापियों का गुस्सा एक दूसरे पर उतरने लगा। पृथ्वी ऐसी लगी मानो वह खून से भर गई। लाशें पृथ्वी पर एक छोर से दूसरी छोर तक भर गयीं। GCH 181.1

पृथ्वी उजाड़ की दशा में थी। शहर नगर और गाँव भूकम्प से नष्ट-भ्रष्ट हो गये थे। उनका ढेर यहाँ वहाँ दिखाई पड़ रहा था। पहाड़ भी अपने स्थानों से हट गए थे। वहाँ गहरी खाई पड़ गई थी। समुद्र से उबड़-खाबड़ पत्थर भी निकल आये थे और पृथ्वी पर छा गये थे। पहाड़ के पत्थर और चट्टानें भी टूट कर पृथ्वी पर इधर-उधर बिखर गई थीं। पृथ्वी उजड़ा हुआ बन के समान दिखाई देती थी। बड़े-बड़े पेड़ उखड़ गये थे और उनकी डालियाँ काट-छाँट कर इधर-उधर पड़ी थी। यही पर अब शैतान का घर था जिसे उसको १००० वर्ष अकेला बिताना था। यहाँ उसे कैदी की तरह रहना होगा। उसे उजड़ी हुई पृथ्वी पर ऊपर नीचे घुमना होगा। उसे ईश्वर की आज्ञा का उल्लंघन करने का प्रभाव को देखना पड़ेगा। शाप का नतीजा जिसको उसने लाया था उसे १००० वर्षों तक उसे भोगना होगा। उसे अकेला इस पृथ्वी पर रहना होगा। दूसरी दुनियाँ में उसे जाने की अनुमति नहीं है। वहाँ के लोग पाप में नहीं गिरे हैं। उन्हें भरमाने की अनुमति शैतान को नहीं दी गई है। इस अकेला जीवन में शैतान को बहुत दुःख झेलना होगा। जब से वह गिरा है तब से उसका बुरा काम पृथ्वी पर लगातार बढ़ रहा था। उसकी शक्ति छीन ली गई थी। जब से वह गिरा है तब से उसे अपना काम करने के लिये इजाजत दे दी गई थी। इसको अपना भविष्य को बहुत ही भयानक और डरावना के रूप में भी देखने का मौका दिया गया था। लोगों को जो पाप करवाया था और स्वयं किया था उसकी भी सजा भी भोगने का दृश्य दिखाया गया था। GCH 181.2

इसके बाद मैंने स्वर्गदूत और उद्धार पाए हुए लोगों की पुकार सुनी। ये ऐसे लगे मानो दस हजार बाजाओं की मधुर आवाज हो। क्योंकि इनमें कोई जीवित न रह गया था जो शैतान के द्वारा फुसलाया जाता। दूसरे जगत के निवासी तो उसकी उपस्थिति और परीक्षाओं से दूर थे। GCH 182.1

मैंने सिंहासन देखा जिसमें यीशु और उद्धार प्राप्त व्यक्ति बैठे थे। सन्तों को राजा और याजकों की तरह राज्य करने का मौका मिला। मरे हुए पापियों का व्याय (फैसला) किया गया और उनके कामों को ईश्वर की व्यवस्था से तुलना किये गए। जैसा उन्होंने काम किया था वैसा ही उनका फैसला हुआ। यीशु ने सन्तों के साथ फैसला किया कि उन्हें उनके कामों के अनुसार क्या दंड मिलना है। उनके नाम तो जीवन की किताब से हटा दिए गए थे और मृत्यु की किताब में थे। शैतान और उसके दूतों को भी यीशु और सन्तों के द्वारा फैसला सुनाया गया। शैतान की सजा तो उनसे बड़ी थी जिनको उसने पाप करवाया था। उसकी सजा इतनी बड़ी थी कि दूसरे दुष्टों की सजा से तुलना नहीं किया जा सकता था। जिनको उसने ट्ण कर पाप करवाया था वे तो जल्दी ही आग में जल कर भस्म हो गए पर शैतान सब से आखिरी तक जलकर दुःख सहता रहा। GCH 182.2

एक हजार वर्षों के समाप्त होने पर दुष्टों का व्याय करना खत्म हुआ। यीशु स्वर्गीय नगर येरूशलेम को छोड़ कर पृथ्वी की ओर अपने लाखों दूतों के साथ आने लगा। उसके साथ सन्त लोग भी आ रहे थे। यीशु उतर कर जैतून पर्वत पर अपना पाँव जैसे ही रखा कि यह पर्वत एक बड़ा मैदान बन गया। तब यह एक बहुत सुन्दर नगर सा बन गया जिस की बारह नींव और बारह फाटक थे। तीन-तीन फाटक चारों ओर थे। हरेक फाटक में एक-एक दूत खड़े थे। इस्त्राएल के बारह गोत्रों में हरेक गोत्र के लिए एक-एक फाटक से प्रवेश करना था। यह जय घोष सुनाई पड़ी कि बड़ा नगर। ऐश्वर्यमय नगर स्वर्ग से उतर कर आ रहा है। यह अद्भुत सुन्दर और चमकवान नगर, नया यीरूशलेम जिसे यीशु ने हमारे लिये तैयार किया था, आखिरकार पृथ्वी पर उतर आया। GCH 183.1

________________________________________
आधारित वचन प्रकाशित वाक्य १६:१-२१, २०:२, ७:१५, ४
GCH 183.2