ख्रीष्ट की और कदम

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प्रार्थना का विशेष सुयोग

प्रकृति और प्रत्यक्ष दर्शन के द्वारा, अपने विधान के द्वारा और अपनी आत्मा के प्रभाव के द्वारा ईश्वर हम लोगों से बातें करता है। किंतु ये यथेष्ट नहीं है; हमें भी तो अपने विचार उनके समक्ष रखने चाहिये। आध्यात्मिक जीवन और स्फूर्ति के लिए हमें सदा ईश्वर के साथ साक्षात्कार और समागम करना पड़ेगा। हम उनकी ओर ध्यानावस्थित हो सकते हैं, उसके कार्यों का गंभीर चिंतन कर सकते है, उनकी करुणा और उपकार का मनन कर सकते हैं। किंतु समागम का पूर्ण श्रेय यही नहीं। समागम की पूर्णता तभी होगी जब हम ईश्वर से अपने वास्तविक जीवन के बारे कुछ कहें॥ SC 77.1

प्रार्थना में हमारा ह्रदय ऐसा खुल जाता है जैसे वह एक मित्र के सामने खुल गया हो। हम क्या हैं, यह बतलाने के लिए प्रार्थना आवश्यक नहीं। किंतु प्रार्थना इस लिए आवश्यक है की हम उसका स्वागत करने के योग्य बने। प्रार्थना ईश्वर को हमारे पास खिंच नहीं लाती किंतु यह हमीं को ईश्वर के पास भेज देती है। जब यीशु संसार में निवास कर रहे थे तो उन्हों ने अपने शिष्यों को प्रार्थना करने की उचित रीती बतलाई थी। उन्हों ने शिष्यों को नित्य की आवश्यकताएँ और अपनी सारी चिंताएँ ईश्वर के पैरों पर अर्पित कर देने का आदेश दिया था। और उन्होंने शिष्यों को यह वचन दिया था की उनकी प्रार्थनाएँ स्वीकार की जायेंगी। यीशु का यह वचन जैसे शिष्यों के लिए सत्य है वैसे ही हम लोगों के लिए भी सत्य है॥ SC 77.2

जब यीशु मनुष्यों के बीच जीवन यापन कर रहे थे, तो वे स्वयं प्रार्थना में लगे रहते थे। हमारे मुक्तिदाता हम मनुष्यों के सदृश हो कर, हमारी आवश्यकताओं और दुर्बलताओं का नमूना हो गए। इसी लिए तो वे प्राणी हुए और उन्हों ने याचना की, की परमपिता उन्हें शक्ति और सामर्थ्य दें ताकि सारी पीडायें और क्लेश वे धीरता के साथ सहन कर सकें। सब बातों में वे हमारे आदर्श हैं। किंतु निष्पाप होने के कारण उनकी प्रकृति दुर्बलताओं से पृथक रहती। उन्हों ने पाप-संकुल जगत में संघर्ष किये, आत्मा की यातना सही। उनके अन्तर के मानव ने प्रार्थना को अवांच्छ्नीय बना दिया। और प्रार्थना अब लाभप्रद भी हो गई। जब जब वे प्रार्थना में बैठे ईश्वर के साथ संभाषण करते, तो आत्मा में शांति और आनंद भर जाते। अब यदि मनुष्य के त्राता और ईश्वर के पुत्र ने प्रार्थना की विशेष आवश्यकता समझी, तो हम दुर्बल, पापी और विनाशशील लोगों को उसकी कितनी आवश्यकता है, यह समझने की बात है। हमें तो नित्य प्रार्थना में ही डूबे रहना चाहिये॥ SC 77.3

हमारे स्वर्गीय पिता हम पर वरदानों की झड़ी लगा देने को अपने भरे हुए ह्रदय से तैयार बैठे हैं। हमें यह विशेष अधिकार प्राप्त है की असाध प्रेम के सोते से जितना चाहें पी लें। लेकिन आश्चर्य तो इस बात का है की हम तब भी कितना कम प्रार्थना करते हैं। ईश्वर अपने प्रिय पुत्रों से नीच से नीच तक की सच्ची प्रार्थना सुनने को तैयार हैं। किंतु हम कितने गिरे हुए हैं की प्रार्थना करने में अनाकनी करते हैं और अपनी आवश्यकतायें बताने में हिचकिचाते है। जब ईश्वर के असीम प्रेममय ह्रदय में मनुष्यों के प्रति अगाध ममत्व भरा है, और हमें अधिक से अधिक वरदान देने को वह लालायित हैं, तो हमारी भोगलिप्सा में डूबे और पापी मन को प्रार्थना के इतने विरुद्ध और विश्वास तथा भक्ति से इतनी दूर देख कर स्वर्ग के दूत-गण हमारी नीचता की कैसी निकृष्ट धारणा बनाते होंगे? दूत गण प्राणपन से ईश्वर के पैरो पर झुकाना चाहते हैं; वे उसके समीप रहना बहुत पसंद करते हैं। ईश्वर के साथ समागम उनका श्रेष्ट आनंद है। किंतु जिन मनुष्यों को ईश्वर की सहायता और अनुग्रह की अवांछनिय आवश्यकता है, वे ही ईश्वर की विभूति के बिना, ईश्वर के समागम के बिना जीवनाधिकार में गिरते पड़ते चलना श्रेयस्कर समझते हैं॥ SC 77.4

जो प्रार्थना नहीं करते वे शैतान के चंगुल में फंस जाते है। जिन पर पापो का घटाटोप अंधकार छाया रहता है। मनुष्य के शत्रु के चपेट में पढ़ कर वे पाप में संलग्न हो जाते हैं। और यह सब कुछ इस लिए होता है क्योंकि ईश्वर-पदत्र प्रार्थना के विशेष अधिकार को वे ठुकरा देते हैं। जब प्रार्थना वह कुंजी है जो विश्वास के हाथो से ईश्वर की सारी निधियों के अगार स्वर्ग के द्वार खोज सकती हैं, तो ईश्वर के पुत्र और पुत्री प्रार्थना करने से क्यों पीछे भागती हैं? जब तक हम निरंतर प्रार्थना सें सलग्न नहीं रहते और पूरी सावधानी से सतर्क नहीं रहते तब तक हम सदा निश्रेष्ट और असावधान होने के डर में पड़े रहते और सत्य के पथ से विमुख हो जाने के खतरे में गिरे रहते हैं। वह सदा वह चाहता है की हम अनुनय, विनय और विश्वास द्वारा ईश्वर की विभूति और अनुग्रह न प्राप्त कर लें, और परीक्षाओं का सामना करने की सामर्थ्य न पावें॥ SC 78.1

कुछ शर्ते है जिन्हें पूरी करने से ही हम ईश्वर से आशा कर सकते है की वह हमारी प्रार्थना सुनेगा। उन शर्तों में एक शर्त यह हैं की हम उसकी सहायता की आवश्यकता ह्रदय में महसूस करें। उसने यह प्रतिज्ञा की है की “मैं प्यासे पर जल और सुखी भूमि पर धाराएँ बहाऊंगा।” यशायाह ४४:३। अतएव जिन्हें पवित्रता और धर्म की सच्ची भूक और प्यास हैं, जिन्हें ईश्वर की सच्ची ललक है, उन्हें यह विश्वास कर लेना चाहिये की उन की भूख, प्यास और ललक शांत की जायेगी। ईश्वर के वरदान के लिए, पवित्रात्मा के प्रभाव की आवश्यकता है। पवित्रता के प्रभाव के लिए ह्रदय के कपाट खुले रहने चाहिये अन्यथा ईश्वर का आशीर्वाद मिल ही नहीं सकता॥ SC 78.2

हमारी आवश्यकताएँ स्वंय हम लोगों से बहस कर रही है, और हमारे उद्धार के लिए खुद पर ओर तकरीर करती हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ईश्वर को ढूँढ़ लेना बहुत जरुरी है। उसने कहा है, “माँगो तो तुम्हे दिया जाएगा,” और “जिसने अपने निज पुत्र को भी न रख छोड़ा पर उसे हम सब के लिए दे दिया वह उसके साथ हमें और सब कुछ क्यों कर न देगा।” रोमी ८:३२॥ SC 79.1

यदि हम हृदय में पाप को छिपायें रखें और किसी जाने पहचाने पाप में जुटे रहे, तो ईश्वर हमारी एक भी न सुनेगा। किन्तु प्रायश्चित में डूबे हुए मग्न ह्रदय की सभी प्रार्थनाएँ स्वीकृत होती हैं। जब सभी भूले सुधर गई, तो हमें निश्चित विश्वास करना चाहिए की हमारी अर्जी मंजूर होगी। ऐसे तो हम में कोई गुण नहीं जो हमारी सिफारिश ईश्वर से कर दे। किंतु यीशु की उदारता ही वह वस्तु है जो हमारी रक्षा कर सकती है। उनका लहू ही हमें धोकर निर्मल कर सकता है। फिर भी हमें कुछ करना है ही और वह है ईश्वर की दी हुई शर्तों को पूरा करना॥ SC 79.2

प्रार्थना स्वीकार कराने की दूसरी शर्त विश्वास है। “परमेश्वर के पास आनेवाले को विश्वास करना चाहिये की वह है और अपने खोजनेवालों को बदला देता है”। यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था, “जो कुछ तुम प्रार्थना करके मांगो प्रतीत कर लो की तुम्हे मिल गया और तुम्हारे लिए हो आएगा।” मार्क ११:२४। क्या हम उसके वचन पर पूरी तरह विश्वास करते हैं? SC 79.3

यीशु की प्रतिज्ञाएँ असीम है, विस्तृत उसका क्षेत्र है। जिसने प्रतिज्ञा की है वह विश्वास योग्य है। यदि हम जिन चीजों को मांगे और वे हमें न मिलीं, तब भी हमें विश्वास यह करना चाहिये की ईश्वर सब सुन रहा है और वह निश्चय हमारी मांगे पूरी करेगा। कभी कभी तो ऐसा भी होता है की अपनी गलतियों और अदूरदर्शिता के कारण हम ऐसी वस्तुएँ माँग लेते हैं जो हमारे हित के लिए न होंगे। किंतु हमारे स्वर्गीय पिता प्यार से उनकी जगह ऐसी वस्तुएँ दे देता है जो हमारे कल्याण के लिए सब से आवश्यक हैं। उन चीजों को हम स्वयं मांगते यदि हम में ईश्वरीय ज्योति होती और हम उस ईश्वरीय प्रकाश में सभी वस्तुओं के उचित रूप और गुण देख लेते। यदि हमारी प्रार्थनाएँ पूरी न होतीं मालूम पड़े तो हमें ईश्वर की प्रतिज्ञा पर अडिग रहना चाहिये; क्योंकि प्रार्थना स्वीकृत होने का समय कभी न कभी अवश्य आयेगा और आवश्यक वरदान अवश्य मिलेंगे। किंतु यह विचार करना की सभी प्रार्थनाएँ एक ही तरह से सुनी जायेगी और जिस विशेष वस्तु की आवश्यकता है वह जरुर मिलेगी, निरी कल्पित ढोंग है। ईश्वर गलती करने से बहुत परे है और इतना नम्र है की सच्चे मार्ग के पथिक को किसी भी आवश्यकता की वस्तु से वंचित नहीं रख सकता। अतएव यदि अपनी प्रार्थना का कुछ भी फल तुरंत न देखे तब भी उन पर विश्वास और भरोसा करने से पीछे मत मुड़िये। उनकी इस विश्वसनीय प्रतिज्ञा “मांगो तो तुम्हे दिया जायेगा” पर विश्वास कीजिए॥ SC 79.4

यदि हम लोग अपने संशय और भय से प्रेरित हो अपनी विचारधारा परिवर्तित कर लें, अथवा जिन वस्तुओं को पूरी तरह देख नहीं सकते उनके रहस्य को भी स्वयं सुलझाने को आगे बढ़ जाँय, और विश्वास तथा भक्ति के उदय के लिए ठहरे नहीं, तो उलझन बढ़ जायेगी और समस्या और गंभीर हो जायेगी। किंतु यदि नम्रता के साथ, अपनी दुर्बलताओं को पहिचानते हुए, हम ईश्वर के पास विनीतता और भक्ति के भाव भरे ह्रदय से आ जाँय और उस सर्वज्ञ से अपनी सारी आवश्यकतायें कह सुनायें तो वह सर्वदृष्टि और सर्वशक्तिमान ईश्वर हमारी चित्कार सुनेगा, और हमारे करुण कंदन से निश्चय ही पिघल उठेगा तथा हमारे ह्रदय में ज्योति विखेर देगा॥ SC 80.1

सच्ची प्रार्थना के द्वारा हम उस अनादी अनंत परमेश्वर के मस्तिष्क के साथ संबंध प्रथित कर लेते हैं। हमारे पाप कोई प्रत्यक्ष साक्षी इस बात की नहीं किंतु बात यथार्त ऐसी है की जब हम प्रार्थना करते हैं तो हमारे मुक्तिदाता करुणा और प्रेम से गद्गद हो कर अपना गंभीर मुख हम पर झुका लेते है। हम उनके हाथों के स्पर्श का अनुभव नहीं कर सकते किंतु सचमुच उनके कोमल हाथ ममता और दयापूर्ण स्नेह में हमारे ऊपर फिरते रहते हैं॥ SC 80.2

जब हम ईश्वर से क्षमा और उपकार की याचना करने जाँय तो अपने ह्रदय में प्रेम और क्षमा के माप भर लें। अन्यथा हम कैसे यह प्रार्थना कर सकते है की “जैसे हम ने अपने अपराधियों को क्षमा किया वैसे ही हमारे अपराधों को क्षमा कर।” मति ६:१२। ऐसी प्रार्थना करते हुए हम किसी प्रकार क्षमाहिन भाव से क्रूर बने रह सकते है! यदि हम अपनी प्रार्थनाओं को सुनाना चाहते हैं और उनकी स्वीकृति के इच्छुक हैं तो जिस मात्र में स्वयं क्षम्य होना चाहते है उसी मात्र में दूसरों को भी क्षमा करें और दूसरों की प्रार्थना भी स्वीकृत करें॥ SC 80.3

प्रार्थना सुनाने और स्वीकृत कराने की एक और शर्त है, प्रार्थना करने में अध्यवसाय। यदि हम भक्ति दृढ़ और अनुभव पक्के करना चाहते हैं तो हमें “प्रार्थना में लगे रहना” आवश्यक है। हमें कहा गया हे, “प्रार्थना में लगे रहो और धन्यवाद के साथ उस में जागते रहो।” रोमी १२;१२; कुलुस्सी ४:२। पितर विश्वासियों की यह कह कर उत्साह देता है, “संयमी हो कर प्रार्थना के लिए सचित रहो।” १ पितर ४:७। पावल आदेश देता है, “हर एक बात में तुम्हारे निवेदन धन्यवाद के साथ प्रार्थना और विनती के द्वारा परमेश्वर सामने जनाए जाएँ।” फिलिप्पी ४:६। बहुदाने कहा है, “है प्यारो, पवित्र आत्मा में प्रार्थना करते हुए, अपने आप को परमेश्वर के प्रेम में बनाए रखो।” यहूदा २०,२१। अखंड प्रार्थना आत्मा और ईश्वर को अटूट संबंध में जोड़ देती है और तभी ईश्वर से अनन्त जीवन का स्त्रोत हमारे जीवन में प्रसारित होता है और हमारे जीवन से पवित्रता तथा शुद्ध भावनाएँ ईश्वर के पास प्रवाहित होती है॥ SC 80.4

प्रार्थना में अध्यवमय, धैर्य और निरंतर अभ्यास की आवश्यकता है। ऐसा दृढ़ जाइये की कोई भी वस्तु आप को प्रार्थना में बाधा न पहुंचा सके। यही चेष्टा कीजिये की आप के और यीशु की बीच का समागम बराबर बना रहे। इस मौके की ताक में सदा लगे रहिये की जहाँ प्रार्थना होती रहे वहाँ उपस्थित हो सकें। जो कोई भी सचमुच ईश्वर का अन्वेंषण कर रहे हैं। वे प्रार्थना मभावों में सदा सम्मिलित होते हुए कर्तव्य में एकनिष्ट और प्रार्थना से जितना भी लाभ उठा सकें उस में पुरे उद्दोगी और प्रयत्नशील देखे जावेंगे। जहाँ में भी स्वर्गीय प्रकाश की एक रशीद मिलने की आशा होगी वहीँ उपस्थित होने के स्वर्ग अवसर को वे प्राणपन से उपभोग करेंगे और पूरी तत्परता से वहाँ उपस्थित होंगे॥ SC 81.1

हमें अपने परिवार में प्रार्थना करनी चाहिए, और गुप्त (मानसिक) प्रार्थना भूलनी नहीं चाहिए क्योंकि यही आत्मा को जीवन देती है। बिना प्रार्थना के वृद्धि पाना असंभव है। और केवल परिवार के साथ अथवा जन-समाज के साथ प्रार्थना करने से ही पूरा लाभ नहीं हो सकता। जब आप अकेले हैं तो अपनी आत्मा को ईश्वर की निरिक्षण के लिए खोल दीजिये। गुप्त प्रार्थना केवल ईश्वर द्वारा ही सुनी जाती है। ऐसी प्रार्थना किसी जिज्ञासु के काम में नहीं पहुँच पाती। गुप्त प्रार्थना में आत्मा चतुर्दिक के प्रभाव से उद्द्वेश और आवेश से मुक्त रहती है। ऐसी अवस्था में ही वह धीरे धीरे और पूरी लगन से ईश्वर के समीप पहुंचेगी। ईश्वर ह्रदय की फूटती वाणी सुन लेगा, गुप्त आकांक्षाएं देख लेगा और उसके कोमल स्पर्श से मधु रेषा और प्रकाश ह्रदय में भर जावेगा। गुप्त प्रार्थना में गंभीर, शांत और सरल विश्वास द्वारा आत्मा ईश्वर का समागम करती है और अपने चतुर्दीय ईश्वरीय विमा एकत्र करती है ताकि शैतान से द्वंद्व करने में वह समर्थ हो सके। ईश्वर ही हमारी शक्तियों का गढ़ है॥ SC 81.2

अपनी व्यक्तिगत कोठरी में प्रार्थना कीजिये। जब अपने दैनिक कार्य में संलग्न हो तब अपने ह्रदय को खोज कर ईश्वर का ध्यान कीजिये। इसी रीती से हनुक ईश्वर के साथ साथ चलता था। गुप्त प्रार्थनाएँ ईश्वर के सिंहासन के पास सुगंधित धुप की तरह ऊपर उठती है। जिसका ह्रदय परमेश्वर पर स्थिर रहता है उसे शैतान कभी हरा नहीं सकता॥ SC 81.3

कोई भी स्थान ऐसा नहीं, कोई भी समय ऐसा नहीं जहाँ और जब ईश्वर से प्रार्थना द्वारा इश्वारंमुख करने से रोके। जन सकुल पथों में, व्यापार अथवा व्यवसाय की भीड़ में भी ईश्वर के पास अर्जी भेजने का उचित समय और स्थान है। नहेमिया ने राजा अर्तक्षत्र के पास निवेदन करते हुए भी ईश्वर से प्रार्थना की थीं। हम भी ईश्वर की शक्ति और सहाय्य प्राप्त करने को हर समय प्रार्थना में प्रवृत्त हो सकते हैं। और जहाँ भी रहेंगे, उन से समागम संभव ही होगा। ह्रदय के द्वार हमें सदा उन्मुक्त रखना चाहिए और सर्वदा आमंत्रण प्रेषित करना चाहिए ताकि यीशु ह्रदय सिंहासन पर आ विराजें और स्वर्गीय अतिथि की तरह रहें॥ SC 81.4

हमारे चतुर्दिक का वातावरण दूषित और घृणित हो सकता है। वैसी अवस्था में हमें दूषित वायु में सांस न लेना चाहिए किंतु स्वर्गीय प्राणप्रद वायु में जीवित रहना चाहिए। सच्ची प्रार्थना के द्वारा हम दूषित कल्पना और अपवित्र भावनाओं का पूर्ण बहिष्कार कर सकते है। जिन्हों ने अपने ह्रदय को ईश्वरीय आशीष और सहायता पाने के लिए खोल दिया वे पृथिवी के वातावरण से कही पवित्र वातावरण में जीवन यापन करेंगे और स्वर्ग के साथ नित्य संबंध में जुटे रहेंगे। SC 82.1

हमें यीशु को और भी स्पष्ट रूप में देखना और शाश्वत सत्य के मूल्य को उचित रीती से समझना चाहिए। पवित्रता में विशेषता यह है की वह ईश्वर के पुत्रों के ह्रदय पूरी तरह से पूर्ण कर देता है। अपने ह्रदय की पूर्णता के लिए हमें ईश्वरीय प्रकाश और स्वर्गीय वस्तुओं को पूरी तरह जानने की चेष्टा करनी चाहिये॥ SC 82.2

आत्मा को उर्ध्वमुखी कीजिये ताकि ईश्वर स्वर्गीय वायु का एक झोंका प्रदान कर सकें। हमें ईश्वर के इतने समीप रहना चाहिये की प्रत्येक अप्रत्याशित कष्ट के समय हमारा मन अनायास घूम कर उनकी ओर केन्द्रित हो जाय, ठीक जैसे फूल सूरज की ओर घूम जाता है॥ SC 82.3

अपनी जरूरते, सुख, दू:ख, चिंताएँ और भय सभी को ईश्वर के सामने खोल कर रख देना चाहिये। यह मत समझिये की आप उन पर बोझ लाद रहे हैं, अथवा परीशान कर रहे है। वे बोझ से उबते नहीं, परिशानी से थकते नहीं। जो आप के माथे के केश गिन ले सकता है वह अपने बच्चो की जरूरतों से घबराएगा? “प्रभु बहुत तरस खाता हैं और दया करता है।” याकूब ५:११। उनका प्रेममय ह्रदय हमारे दू:ख से पिघल पड़ता है और हमारे कहने मात्र से द्रवित होता है। जिस चीज से भी आप घबरा उठे, उसे उनके पास ले जाईये। उनके सामने कोई भी चीज बहुत बड़ी अथवा भरी नहीं। वे गृह मंडल और सारे विश्व को संभाले हैं। उनके सामने कौनसी चीज भरी होगी? हमें अशांत करनेवाली कोई भी वस्तु उनके लिए छोटी नहीं। हमारे जीवन के काले अध्यायों में कोई भी इतना कालिमा पूर्ण नहीं जिसे वे नहीं पढ़ सकते। हमारी गंभीर से गंभीर उलझन उनके लिए आसान है। कोई ऐसी विपत्ति हम पर नहीं आ सकती, कोई ऐसी चिंता हमारी आत्मा की जंजोरित नहीं कर सकती, कोई हर्ष हमें खुश नहीं कर सकता, कोई प्रार्थना ऐसी नहीं हो सकती, जिसे हमारे परमेश्वर नहीं जानते और जिस में वे तुरंत हाथ नहीं बटाते, अथवा रुची नहीं दिखाते। “वह खेदित मनवालों को चंगा करता और उनके शोक पर पट्टी बंधता है।” भजन संहिता १४७:३। ईश्वर के साथ प्रत्येक प्राणी का संबंध ऐसा गहरा है की जैसे प्रत्येक व्यक्तिगत आत्मा के लिए ही उन्होंने अपने प्रिय पुत्र को सौंपा; अन्य प्राणी मानों है ही नहीं॥ SC 82.4

यीशु ने कहा है, “तुम मेरे नाम से मांगोगे और मैं तुमसे यह नहीं कह सकता की मैं तुम्हारे लिए पिता से बिनती करूंगा। क्योंकि पिता तो आप है तुम से प्रीति रखना है।” “मैंने तुम्हे चुना….की तुम मेरे नाम से जो कुछ पिता से मांगो वह तुम्हे दे।” योहन १६:२६; १५:१६। लेकिन यह ध्यान रहे की यीशु के नाम से प्रार्थना करनी एक बात है और प्रार्थना के शुरू और आखिर में यीशु का नाम लेना दूसरी बात है। यीशु के नाम से प्रार्थना करना बहुत बड़ी चीज है। क्योंकि ऐसी प्रार्थना यीशु के मन और प्रभा से निकलेगी और जब तक उनकी प्रतिज्ञाओं पर विश्वास है तथा जब तक उनके कार्य में दत्तचित्त है तब तक हमारी उनके नाम की प्रार्थनाएँ उनकी ही प्रार्थनाएँ रहेगी॥ SC 83.1

ईश्वर यह नहीं चाहता है हम में से कोई साधू या फकीर हो जाय दुनिया छोड़ दे और मंगल में जाकर तपस्या और पूजा करे। जीवन यीशु के जीवन के अनुरूप होना जरुरी है। पर्वत और जनसमुदाय के बीच पीसनेवाला जीवन यीशु का था, वैसा ही जीवन हम लोगों का हो। जो कुछ नहीं करता केवल प्रार्थना में लगा रहता है, वह शीघ्र ही प्रार्थना करना बंद कर देगा। उसकी प्रार्थना दिनचर्या की तरह थाथी रह जायगी। जब आदमी सामाजिक जीवन से अलग आ पड़ते हैं, ईसाई के कर्तव्य से बन्नी कटा कर दूर जा पड़ते है, जब वे अपने प्रभु के लिए, जिन्होंने उनके निमित्त कठिन परिश्रम किया, कोई काम नहीं करते, तब उनकी प्रार्थना में कोई तथ्य नहीं रहता और उनकी भक्ति में कोई प्रेराकशक्ति और श्रद्धा नहीं रहती। ऐसे आदमी की प्रार्थना स्वार्थपूर्ण और वैयक्तिक हो जाती है। ऐसे आदमी मानव-कल्याण के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते, यीशु के साम्राज्य के उत्थान के लिए प्रार्थना नहीं कर सकते, मनुष्यों के दू:ख निवारण और उद्धार के लिए अपने में सामर्थ्य की याचना नहीं कर सकते॥ SC 83.2

जब हम परमेश्वर की सेवा में एक दुसरे को उत्साहित और बलवंत करने के स्वर्ण अवसर को ठुकरा देते है तब हमें हानि उठानी पड़ती है। हमारे मन से उसके वचन की सच्चाई की स्पष्टता हट जाती है। हमारा ज्ञान कम हो जाता ही, हमारे ह्रदय पर उसके पवित्र करनेवाली शक्ति का प्रभाव घट जाता है और हम आत्मिक जीवन में शिथिल होते जाते हैं। एक दुसरे के प्रति सहानुभूति न दिखलाने के कारण हम ख्रिष्टिवानी संगती की विशेषता को खो बैठते हैं। जो अपने को दूसरों की पहुँच से बाहर रखता है वह ईश्वर के ठहरायें हुए कर्तव्य को पूरा नहीं करता है। सामाजिक प्रवृत्तियों का होना मनुष्य के चरित्र में आवश्यक है। यही हमें दूसरों के साथ सहानुभूति और प्रेम के बंधन में बांधती हैं। और इस मेल-मिलाप से ही हमारे अंदर ताकत और जोश ईश्वर की सेवा में प्रवृत्त होने के लिए आते है॥ SC 83.3

यदि ईसाई लोग दूसरों से मिले और ईश्वर के प्रेम की चर्चा करें, तथा बहुमूल्य सत्य और मुक्ति का विचार-विनिमय करें, तो उनका ह्रदय शुद्ध होंगा और दुसरे का ह्रदय भी निर्मल होगा। संभाषण द्वारा हम नित्य स्वर्गीय पिता के बारे नये ज्ञान प्राप्त करेंगे। फिर उसके प्रेम का वर्णन करेंगे। और वह सब करते करते हमारा ह्रदय सरगम और उत्साहित होता जायेगा। यदि हमने यीशु के बारे अधिक और स्वार्थ के विषय में कम विचार और बातें की है, तो यह निश्चय जानिये, हम इनकी उपस्थिति अधिक प्राप्त करेंगे॥ SC 84.1

जब जब हम वह प्रमाण पा लें की ईश्वर हमारी फिक्र करता है, यदि तब भी ईश्वर का ध्यान लगावें हमें सदा उसे अपने ह्रदय में रखना होगा, उसका ध्यान करना होगा और उनके बारे संभाषण तथा प्रशंसा में प्रवृत्त होगा पड़ेगा। हम सांसारिक वस्तुओं के विषय में अधिक बातें करते है क्योंकि इन वस्तुओं से हमारा मतलब है। हम अपने मित्रों के विषय में बातें करते क्योंकि हम उन्हें प्यार करते है, हमारे आनंद और शोक उनसे मिले हुए है। फिर भी मित्र से ईश्वर को प्यार करने के कुछ बड़े कारण है। संसार की सब से स्वाभाविक चीज तो यह होनी चाहिये की मस्तिष्क में सबसे पहले ईश्वर के विचार ही उठे, उन्ही की प्रशंसा की जाय और उनकी नम्रता और कल्याणकारी शक्तियों का संभाषण किया जाय। दुनिया की सुंदर और मोहक वस्तुओं का जो बहुमूल्य उपहार हम लोगों को मिला वह इस लिए नहीं मिला की हमारा सारा ध्यान और प्रेम उन्हों में लग जाय और ईश्वर के लिए ह्रदय में कुछ भी स्थान न हो, प्रेम न हो। इसके उलटे हमें इन उपहारों से सदा स्वर्गीय पिता को प्रवृत्त होने का संकेत पाना चाहिये और उन्ही उपहारों के द्वारा प्रेरणा पा अपने स्वर्गस्थ परमपिता की उदारता और दान की भूरी भूरी प्रशंसा करनी चाहिये, तभी हमारी कृतज्ञता प्रगट होगी। यदि हम ऐसा नहीं करते तो निश्चय ही हम दुनिया की सब से नीची तराई के गड्ढे के समीप वास करते है। हमें उस पवित्रस्थान की और आँखें उठा कर देखना चाहिये। जिनके द्वार खुले है और जहाँ से ईश्वर की महिमा की धवल रश्मियाँ उस ख्रीष्ट के मुख की दीन कर रही है, “जिसके द्वारा परमेश्वर के पास आते है” और “वह उसका पूरा पूरा उद्धार कर सकता है।” इब्रो ७:२४॥ SC 84.2

“परमेश्वर की करुणा के कारण और उनकी आश्चर्यकर्मों के कारण जो वह मनुष्यों के लिए करता है,” हमें उसकी हार्दिक प्रशंसा करनी चाहिये। हमारी प्रार्थना में केवल यंत्रनाएं ही भरी न हों। यह तो अच्छा नहीं की हम प्रतिदिन अपनी आवश्यकताओं की उधेड़बुन में ही पड़ें रहे और जो विपुल पुरस्कार हमें मिल चूका है उस की कुछ चिंताही न करें। हम प्रार्थना भी उतनी अधिक नहीं करते, लेकिन उससे भी कम अपनी कृतज्ञता प्रगट करते हैं। समझिये की कृतज्ञता और धन्यवाद के शब्द तो हमारे ह्रदय से निकलते ही नहीं। सदा तो उनके उपकारों से हम लदे जा रहे हैं, सदा क्षमा के वरदान पा रहे हैं, फिर भी हम कितने नीच हैं की कृतज्ञता के भाव प्रगट नहीं करते। हमारे लिए उसने जो कुछ किया, इसके लिए हम उसकी प्रशंसा तक नहीं करते॥ SC 84.3

पुराने समय में जब इस्त्राइल ईश्वर की सेवा के लिए एकत्रित हुए, तो ईश्वर ने कहा, “तुम अपने परमेश्वर यहोवा के सामने भोजन करना और अपने अपने घराने समेत उन सब कामों पर जिनमें तुमने हाथ लगाया हो और जिन पर तुम्हारे परमेश्वर यहोवा की आशीष मिली हो आनंद करना।” व्यवस्था विवरण १२:७। ईश्वर की महिमा के लिए जो कुछ भी आप करें, प्रफुल्लित हो कर करें, प्रशंसा के मधुर गीत और कृतज्ञता के संगीत के साथ करें, न की उदासी और दू:ख के साथ॥ SC 85.1

हमारे ईश्वर महत्वपूर्ण और दयालु पिता हैं। उनकी सेवा उदासी और दू:ख का कारण होना चाहिये। उनकी पूजा और सेवा में तो उल्लास के साथ प्रवृत्त होना चाहिये। ईश्वर ने अपने पुत्रों के लिए मुक्ति और आनंद के इतना बहुमूल्य उपहार दिया, तो वह कैसे उनसे क्रूरता के साथ काम ले सकता है? वह तो उनका सर्वश्रेष्ठ मित्र है। और जब वे उसकी पूजा करते हैं तो वह सदा उनके साथ रहता है, उन्हें सांत्वना और आशीर्वाद देता है, और उनके ह्रदय में उल्लास और प्रेम भर देता है। ईश्वर यह चाहता है की उसकी संतान उसकी सेवा करने में चैन प्राप्त करे, और उसके कार्यों के संपादन में आनंद, न की दू:ख प्रकट करे। वह यह भी चाहता है की जो कोई भी उसकी सेवा करे, वह ईश्वरीय प्रेम और ममता के बहुमूल्य वरदान पा कर जाय। इन वरदानों को पा कर वह अपने दैनिक जीवन के सभी कर्तव्यों में प्रसन्न मन रहेगा और पूरी ईमानदारी तथा लगन से सारा कर्तव्य सम्पादित करेगा॥ SC 85.2

हमें कूस के चारो ओर जुट जाना आवश्यक है। ख्रीष्ट और उसकी कूस ही हमारी एकनिष्ट चिंतन के विषय होने चाहिये; इन्ही के विषय में संभाषण करें, और हमारे आनंद से भरे सारे उद्द्वत इन्हीं से प्रेरित हो जिन जिन चीजों को हमने ईश्वर से पाया है उन सर्वों को यद् रखना और सभी आशीर्वाद और उपहार के लिए उस परमेश्वर की कीर्ति और गुणों की प्रशंसा करना हमारा कर्तव्य है। तब हम उन्ही हाथों पर अपने सारे जीवन को अर्पित कर सकते है जिन हाथों पर हमारी ही मुक्ति के लिए कौल ठोंकी गई थी॥ SC 85.3

ईश्वर की गुणगान और प्रशंसा के पंखों पर चढ़ मन स्वर्ग के एकदम निकट उड़ चलेगा। स्वर्गीय दरबार में ईश्वर की आराधना, गीत और बाह्य यंत्रो की मधुर ध्वनी के साथ होती है। “धन्यवाद के बलिदान का चढ़ानेहारा मेरी ईश्वर की महिमा करता है।” भजन संहिता ५०:२३। तब हमारा कृतज्ञता-ज्ञापन स्वर्गीय पूजा से कुछ कम न रहेगा। हमें चाहिये की “उसमे हर्ष और धन्यवाद और भजन” के साथ बड़ी भक्तिसहित उनके सम्मुख उपस्थित हुआ करें। यशायाह ५१:३॥ SC 85.4