महान संघर्ष
दूसरा दूत के समाचार
मंडलियाँ पहला दूत के समाचार नहीं ग्रहण कर सकीं क्योंकि स्वर्ग से जो ज्योति आई थी उसे उन्होंने इन्कार की थी। इसलिये ईश्वर का अनुग्रह उन पर नहीं था। वे अपने पर भरोसा रख कर अपने आप को पहिला दूत के समाचार सुनने से इन्कार कर दिये जिससे उन्हें दूसरा दूत के समाचार की ज्योति भी नहीं मिली। परन्तु ईश्वर के प्रियजन, जो सताये गए, उन्होंने उस संवाद का उत्तर दिया जिसमें कहा गया था कि बाबुल गिर गया और वे अपनी मंडलियों को डोछ़कर चले गये। 1SG 112.1
दूसरे दूत के समाचार के अन्त होने के पहले मैंने परमेश्वर के लोगों के ऊपर स्वर्ग से बड़ी ज्योति चमकते हुए देखी। इस ज्योति की चमक तो सूर्य के समान तेज थी। तब मैंने स्वर्गदूत को एक बड़ी आवाज देकर पुकारते हुए सुना - “गिर पड़ा वह बड़ा बाबुल गिर पड़ा जिसने अपने व्याभिचार की कोपमय मदिरा सारी जातियों को पिलायी है” स्वर्ग से दूतगण आकर उन सन्तों को जगाने लगे जो उदास हो गए थे। उन्हें बड़ा काम करने के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे। जो बड़ा विद्वान कहलाते थे, वे इस संवाद को पहले ग्रहण करने वालों में नहीं थे। स्वर्गदूत लोग दीन और नम्र लोगों के पास जाकर सनातन का सुसमाचार देने के लिये उत्साहित करने लगे। जिन लोगों को यह काम पौंपा गया था, वे पवित्र आत्मा की शक्ति से खूब जोर से प्रचार करने लगे। यह काम न तो विद्वानों की बुद्धि से और न शक्ति से ही जोर पकड़ा पर ईश्वर की शक्ति से हुआ। जो लोग धार्मिक स्वभाव के थे उन लोगों ने पहले पहल इस संवाद को ग्रहण किया। 1SG 112.2
जगत के सब क्षेत्र में दूसरा दूत के समाचार फैलाये गए और हजारों लोगों के दिल में पैठने लगे। यह एक गाँव से दूसरा गाँव, एक शहर से दूसरा शहर फैलने लगा जब तक कि ईश्वर के लोगों तक नहीं पहुँचा। बहुत सी मंडलियाँ दूसरा दूत के समाचार को सुनने से इन्कार करने लगी पर जो लोग सत्य के खोजी थे उन चर्चों से निकल आये। आधी रात की पुकार का संवाद के द्वारा बहुत बड़ा काम हुआ। संवाद दिल छूने वाला था इसलिये विश्वासी लोगों को इसे ग्रहण करने की प्रेरणा मिली। वे जानते थे कि दूसरों पर भरोसा नहीं करना हैं इस का अनुभव स्वयं करना है कि यह सत्य है कि झूठ। 1SG 113.1
सन्त लोग व्याकुल होकर लगातार उपवास और प्रार्थना में बिता रहे थे। जबकि कुछ पापी लोग आने वाला दिन को डर से देख रहे थे वहीं बड़ी संख्या में लोग इसका विरोध कर शैतान का साथ दे रहे थे। उनकी हँसी-ठट्ठा करना चारों ओर सुनाई दे रहा था। बुरे दूत और शैतान खुश थे। वे लोगों के दिलों को कठोर कर रहे थे और स्वर्ग से आई हुई ज्योति को इन्कार करवा कर उन्हें अपने जालों में फँसाये रखना चाहते थे। बहुत लोग जो प्रभु को प्यार करते थे उनका इसमें न कुछ हिस्सा था और न हाथ। वे बेपरवाह थे। उन्होंने ईश्वर की महिमा देखी थी, लोगों को नम्र भाव से उपासना करते और प्रतीक्षा करते हुए भी देखे थे और सच्ची गवाही के कारण दूसरों को सच्चाई को अपनाते हुए भी देखे थे। पर ये मन बदलने वाले न थे। वे तैयार नहीं हो रहे थे। चारों ओर सन्तों की गम्भीर और जोशिली प्रार्थनाएँ हो रही थीं। उनके ऊपर पवित्र जिम्मेदारी आ रही थी। स्वर्गदूतगण बड़ी तमन्ना के साथ नतीजा का इन्तजार कर रहे थे और जिन्होंने स्वर्गीय संवाद को पाया था उनको मजबूत कर रहे थे। वे उनको संसार का लाभ से स्वर्ग का बड़ा लाभ जो ‘उद्धार’ है उसे पाने के लिये उत्साहित कर रहे थे। ईश्वर के लोग इस प्रकार से ग्रहण किये जाते थे। यीशु उन्हें देखकर बहुत खुश हो रहा था। उसकी उनके द्वारा प्रतिबिम्बित हो रही थी याने यीशु की झलक दूसरों को दे रहे थे। उन्होंने अपने आप को पूर्ण रूप से समर्पण कर दिया था और अमरता को पाने की आशा कर रहे थे। पर उन्हें अमरता पाने से रोका गया याने यीशु नहीं आया और अमरता नहीं मिली। उन्हें उदास होना पड़ा था। छुटकारा का समय की आशा कर रहे थे वह तो बीत गया। अब तक वे पृथ्वी पर ही थे और शाप का प्रभाव जाता हुआ नहीं दीख रहा था। उन्होंने तो अपना स्नेह स्वर्ग पर रखा था और उसकी मीठी अपेक्षा में थे। वे संसार का दुःख-दर्द से सदा के लिये छुटकारा पाना चाहते थे। पर उनकी आशा में पानी फिर गया। 1SG 113.2
लोगों में जो डर समा गया था वह तुरन्त गायब नहीं हुआ था। जो लोग उदास-नीरस हो गए थे उन पर विजयी नहीं हुए थे यानी व्यगं नहीं कर रहे थे। परन्तु जब ईश्वर का गुस्सा का तुरन्त अनुभव नहीं हुआ तो डर भय छोड़ कर फिर से विश्वासियों की हँसी-ठट्ठा और मजाक करने लगें। ईश्वर के लोगों को फिर परखा गया। जगत के लोग उनकी बेइज्जत करने लगे। पर जो लोग यीशु पर बिना सन्देह विश्वास कर रहे थे कि वह आकर मुर्दों को जिलायेगा, जीवित सन्तों को बदलेगा, अपना राज्य में ले जायेगा और सदा सर्वदा वे वहाँ रहेंगे, वे अपने को यीशु के चेले समान महसूस कर रहे थे। वे मानो उसी प्रकार का उच्चारण कर रहे थे जैसा कब्र में यीशु को न पाकर मरियम ने किया था - ‘मेरा प्रभु को कहाँ ले गये और मैं नहीं जानती हूँ कि कहाँ रखे है।’ 1SG 114.1